स्त्री पर कविता


 स्त्री पर कविता

साँसें हैं पर जिंदगी नहीं

जैसे ख़ुदा तो है पर बंदगी नहीं, 

बेड़ियाँ नहीं है फ़िर भी आजाद नहीं

अपने मुताबिक जी पायें

वो भी अधिकार नहीं|


पिता, पति और बाद में पुत्र

यही उसकी जिंदगी के कलमकार हैं

जिंदगी स्वयं की है.... 

 पर उस पर भी कहाँ अधिकार है |


उसी से संपूर्ण होती सारी सृष्टी है... 

दूसरों की नजरों से देखती है वो दुनिया

उसकी स्वयं की कहाँ कोई दृष्टि है |


उसकी स्वयं की लिखी रचना साकार नहीं

ढल जाती है वह सबके मन मुताबिक

स्त्री की जिंदगी का कोई आकार नहीं |


पल्लवी लघाटे(pallavi Laghate) 


















1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही अच्छा लिखा है। ज़माना बहुत आगे बढ़ा पर स्त्री की स्थिति आज भी वही है

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